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नज़्म
तमाम रानाइयों के मज़हर, तमाम रंगीनियों के मंज़र
सँभल सँभल कर सिमट सिमट कर सब एक मरकज़ पर आ रहे हैं
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
तिरी रानाइयों की तमकनत को भूल जाएँगी
पुकारेंगे तुझे तो लब कोई लज़्ज़त न पाएँगे
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मगर उस की रानाइयों से मुझे कोई दिल-बस्तगी ही नहीं थी
कभी राह चलते हुए ख़ाक की रूह-परवर कशिश
शकेब जलाली
नज़्म
कौन भूले अमावस की रातों सी ज़ुल्फ़ों की रा’नाइयाँ
कौन दिल से हया-दार आँखों की यादें मिटा दे