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नज़्म
तिरा ये रिंद-ए-सर-गश्ता जिसे 'फ़ारूक़' कहते हैं
इसी तन्क़ीद के चलते बहुत बदनाम है साक़ी
शमीम फ़ारूक़ बांस पारी
नज़्म
किस दौर में आए हैं हम ऐ मज्लिस-ए-साक़ी
जब रिंद-ए-ख़राबात-नशीं हो गए मदहोश
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
मुझ रिंद-ए-हुस्न-कार की मय-ख़्वारियाँ न पूछ
इस ख़्वाब-ए-जाँ-फ़रोज़ की बेदारियाँ न पूछ
जोश मलीहाबादी
नज़्म
पार उतर जाएँगे बहर-ए-ग़म से रिंद-ए-बादा-नोश
ले उड़ेगी कश्ती-ए-मय को हवा बरसात की
चकबस्त बृज नारायण
नज़्म
शाद है दिल उन का और बेहद तरब-आलूद है
रिंद-ए-बादा-नोश हैं और वा दर-ए-मय-ख़ाना है