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नज़्म
किस हाथ को छोड़ना है किसे थामना है
इक रियाज़ी के उस्ताद ने अपने हाथों में परकार ले कर
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
रियाज़ी हो कि मंतिक़ फ़ल्सफ़ा हो या तसव्वुफ़ हो
सब इस की बज़्म में मौजूद हैं और जान-ए-महफ़िल हैं
अलम मुज़फ़्फ़र नगरी
नज़्म
रियाज़ी समझने की कुल्फ़त भी बर्दाश्त की थी
अचानक मिरी ज़िंदगी में जो एक ऐसे तूफ़ान ने आ के मारा
अंजुम शकील
नज़्म
हत्ता कि अपने ज़ोहद-ओ-रियाज़त के ज़ोर से
ख़ालिक़ से जा मिला है सो है वो भी आदमी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
रियाज़-ए-दहर में ना-आश्ना-ए-बज़्म-ए-इशरत हूँ
ख़ुशी रोती है जिस को मैं वो महरूम-ए-मसर्रत हूँ