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नज़्म
रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय-ख़ाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रुख़ के काशाने में चल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तू मुस्कुराई मगर मुस्कुरा के रुक सी गई
कि मुस्कुराने से ग़म की ख़बर मिले न मिले
साहिर लुधियानवी
नज़्म
कभी जो चंद सानिए ज़मान-ए-बे-ज़मान में आ के रुक गए
तो वक़्त का ये बार मेरे सर से भी उतर गया
नून मीम राशिद
नज़्म
जो दरवाज़े पे रुक कर देर तक रस्में निभाती थीं
पलंगों पर नफ़ासत से दरी चादर बिछाती थीं