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नज़्म
हाए इस कर्ब के आलम में कहाँ मुमकिन है
क़ब्ल-अज़-रोज़-ए-जज़ा चाक-ए-जुदाई सिलना
मोहम्मद ओवैस मालिक
नज़्म
मैं सिवाए कुफ़्र के हर हुक्म उस का मान लूँ
ऐ ख़ुदा-ए-दो-जहाँ ऐ मालिक-ए-रोज़-ए-जज़ा
मुर्तजा साहिल तस्लीमी
नज़्म
इक रोज़ मगर बरखा-रुत में वो भादों थी या सावन था
दीवार पे बीच समुंदर के ये देखने वालों ने देखा
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
रोज़-ए-रौशन जा चुका, हैं शाम की तय्यारियाँ
उड़ रही हैं आसमाँ पर ज़ाफ़रानी साड़ियाँ
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
मता-ए-सब्र वहशत-ए-दुआ की नज़्र हो गई
उमीद-ए-अज्र बे-यक़ीनी-ए-जज़ा की नज़्र हो गई