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नज़्म
जो हम से कहो हम करते हैं क्या 'इंशा' को समझाना है
उस लड़की से भी कह लेंगे गो अब कुछ और ज़माना है
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
ख़्वाब थे इक दिन औज-ए-ज़मीं से काहकशाँ को छू लेंगे
खेलेंगे गुल-रंग शफ़क़ से क़ौस-ए-क़ुज़ह में झूलेंगे
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
किस को समझाएँ उसे खोदें तो फिर पाएँगे क्या
हम अगर रिश्वत नहीं लेंगे तो फिर खाएँगे क्या
जोश मलीहाबादी
नज़्म
गया तो हम तुम्हें फ़ौरन बुला लेंगे चले जाओ''
(अगर मर जाऊँ मैं तो सब्र कर लेना... ख़ुदा-हाफ़िज़)
ग़ुलाम मोहम्मद क़ासिर
नज़्म
बना लेंगे तिरे ज़िंदाँ को भी हम ग़ैरत-ए-महफ़िल
लिए अपनी निगाहों में जमाल-ए-अंजुमन हम हैं
आनंद नारायण मुल्ला
नज़्म
अभी कुछ दिन लगेंगे ख़्वाब को ताबीर होने में
किसी के दिल में अपने नाम की शम्अ जलाने में