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नज़्म
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
क़हर तो ये है कि काफ़िर को मिलें हूर ओ क़ुसूर
और बेचारे मुसलमाँ को फ़क़त वादा-ए-हूर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
क्या कहा बहर-ए-मुसलमाँ है फ़क़त वादा-ए-हूर
शिकवा बेजा भी करे कोई तो लाज़िम है शुऊर
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जो वादा-ए-फ़र्दा पर अब टल नहीं सकते हैं
मुमकिन है कि कुछ अर्सा इस जश्न पे टल जाएँ
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अपनी मन-मानी ही आख़िर में करेंगे अब तो
दहर को वादा-ए-पुर-कैफ़ से मिन्नत-कश-ए-एहसान करो
मख़मूर जालंधरी
नज़्म
सब्र का फल लोग कहते हैं मिलेगा एक दिन
आह कब तक इंतिज़ार-ए-वा'दा-ए-फ़र्दा करूँ
जगदीश सहाय सक्सेना
नज़्म
भला उन की तलाफ़ी वादा-ए-रंगीं से क्या होगी
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ है तू भी कितना शोख़-ओ-बे-परवा