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नज़्म
मिरी दोनों आँखें जो बे-दारी-ए-शब की शाहिद रहीं हैं
मिरी दोनों आँखें जो सोने के नाटक से उक्ता चुकी हैं
निवेश साहू
नज़्म
और वो शब बेदार उसे सोने नहीं देते
अपने बुरते पर गुनाह करते तो दुआओं की नौबत ही क्यूँ आती
मुग़नी तबस्सुम
नज़्म
तू चली जा कि मुझे तेरी ज़रूरत भी नहीं
मैं शब-ओ-रोज़ की मिट्टी से दोबारा भी जनम ले लूँगा
शहज़ाद अहमद
नज़्म
क्या नूरी नूरी मशअ'ल हैं इन प्यारे प्यारे तारों की
क्या झिलमिल झिलमिल करती हैं फ़ानुसें शब-बेदारों की