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नज़्म
कितने ग़ुंचे हैं जिगर-चाक गुलिस्ताँ में अभी
हर तरफ़ ज़ख़्म हैं बे-मिन्नत-ए-मरहम कितने
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
बाग़्बान-ए-चारा-फ़र्मा से ये कहती है बहार
ज़ख़्म-ए-गुल के वास्ते तदबीर-ए-मरहम कब तलक
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तेरा जोबन कि जो शर्मिंदा-ए-सद-फ़ित्ना है
सुक्र ये तेरे हुज़ूरी का बयाँ कैसे हो
अख़लाक़ अहमद आहन
नज़्म
कुछ ऐसा मुझ को गुमाँ था तुफ़ैल-ए-मरहम-ए-वक़्त
कोई भी घाव हो इक रोज़ भर ही जाता है
जगन्नाथ आज़ाद
नज़्म
ये हिन्दी वो ख़ुरासानी ये अफ़्ग़ानी वो तूरानी
तू ऐ शर्मिंदा-ए-साहिल उछल कर बे-कराँ हो जा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मिरी बिगड़ी हुई तक़दीर को रोती है गोयाई
मैं हर्फ़-ए-ज़ेर-ए-लब शर्मिंदा-ए-गोश-ए-समाअत हूँ