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नज़्म
हिजाबात-ए-तसव्वुर में अभी है मिल्लत-ए-आदम
अभी इंसाँ शिकार-ए-ला'नत-e-अक़्वाम है साक़ी
शमीम फ़ारूक़ बांस पारी
नज़्म
वो माँ कि हाँ से भी होती है बढ़ के जिस की नहीं
दम-ए-इताब जो बनती फ़रिश्ता रहमत का
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
अदू जिस का ख़राब-ए-ग़म शिकार-ए-ना-मुरादी था
हर इक साहिल-नशीं जाँ-सोज़ तूफ़ानों का आदी था
अफ़सर सीमाबी अहमद नगरी
नज़्म
ख़ुदा-ए-सुख़न 'मीर' के सोज़-ए-पिन्हाँ की मैं राज़दाँ हूँ
वो दीवान-ए-ग़ालिब वो शहकार-ए-तख़लीक़-ए-आदम
ख़ालिद मुबश्शिर
नज़्म
कहता था इक शिकारी ये आएँगे हम ज़रूर याँ
जिस को हो अपनी जाँ अज़ीज़ बन में वो घर बनाए क्यों