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नज़्म
तुम्हारी आप-बीती भी अभी तक ना-मुकम्मल है
इसे तो नाक़िदान-ए-फ़न ने सुनते ही सराहा है
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
वो ग़म बाँट लेने में भी आज़ाद थी और ख़ुशियाँ तक़्सीम करने में भी
उसे बहुत सराहा जाता था और चाहा भी
हमीदा शाहीन
नज़्म
जो सरापा नाज़ थे हैं आज मजबूर-ए-नियाज़
ले रहा है मय-फ़रोशान-ए-फ़रंगिस्तान से पार्स
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
सरापा रंग-ओ-बू है पैकर-ए-हुस्न-ओ-लताफ़त है
बहिश्त-ए-गोश होती हैं गुहर-अफ़्शानियाँ उस की
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
दफ़्तर-ए-हस्ती में थी ज़र्रीं वरक़ तेरी हयात
थी सरापा दीन ओ दुनिया का सबक़ तेरी हयात