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नज़्म
दिमाग़ बर-सर-ए-हफ़्त-आसमाँ था देहली का
ख़िताब-ए-ख़ित्ता-ए-हिन्दोस्ताँ था देहली का
मोहम्मद अली तिशना
नज़्म
वो आग जिस ने किया इंहिराफ़-ए-अज़्मत-ए-ख़ाक
ख़ुद अपनी ज़ात के दोज़ख़ में जल रही है आज
हिमायत अली शाएर
नज़्म
ज़माने ने सुपुर्द-ए-ख़ाक तेरे कर दिए साथी
न उन की पत्तियाँ बाक़ी न उन में रंग-ओ-बू बाक़ी
नारायण दास पूरी
नज़्म
लहद में सो रही है आज बे-शक मुश्त-ए-ख़ाक उस की
मगर गर्म-ए-अमल है जागती है जान-ए-पाक उस की
हफ़ीज़ जालंधरी
नज़्म
साकिनान-ए-अर्श-ए-आज़म की तमन्नाओं का ख़ूँ
इस की बर्बादी पे आज आमादा है वो कारसाज़