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नज़्म
दौलत की आँखों का सुर्मा बनता है हमारी हड्डी से
मंदिर के दिए भी जलते हैं मज़दूर की पिघली चर्बी से
जमील मज़हरी
नज़्म
जिन ज़मीनों पे भूरी गिद्धों की नोची हड्डी के रेज़े बिखरीं
तुम अपनी राय को इस्तक़ामत की आब देना
अली अकबर नातिक़
नज़्म
अली अकबर नातिक़
नज़्म
कहीं किसी का मास न हड्डी कहीं किसी का रूप न छाया
कुछ कत्बों पर धुँदले धुँदले नाम खुदे हैं मैं जीवन-भर
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
शहर तू अपने गंदे लिबास कब उतारेगा
शहर लोग कहते हैं मरने के बाद मेरी हड्डी से बटन बनाएँगे