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नज़्म
हुक़्क़ा सुराही जूतियाँ दौड़ें बग़ल में मार
काँधे पे रख के पालकी हैं दौड़ते कहार
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
अहमद हमेश
नज़्म
और रह जाते हैं हम हक्का-बक्का
जिस मफ़्हूम पर सर धुनते आए थे कल तक कितना सतही कितना अधूरा था वो
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
तू ने क्यों जन्नत-ए-हुमक़ा से निकाला हम को
ज़ह्न को किस लिए होने दिया बालिग़ तू ने