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नज़्म
दौलत के फ़रेबी बंदों का ये किब्र और नख़वत मिट जाए
बर्बाद वतन के महलों से ग़ैरों की हुकूमत मिट जाए
आमिर उस्मानी
नज़्म
हुकूमत के तशद्दुद को इमारत के तकब्बुर को
किसी के चीथडों को और शहंशाही ख़ज़ानों को
साहिर लुधियानवी
नज़्म
डाकुओं के दौर में परहेज़-गारी जुर्म है
जब हुकूमत ख़ाम हो तो पुख़्ता-कारी जुर्म है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हुकूमत के मज़ाहिर जंग के पुर-हौल नक़्शे हैं
कुदालों के मुक़ाबिल तोप बंदूक़ें हैं नेज़े हैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ये हुकूमत ये ग़ुलामी ये बग़ावत की उमंग
क़ल्ब-ए-आदम के ये रिसते हुए कोहना नासूर
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
ऐ ख़ुदा हिन्दोस्ताँ पर ये नहूसत ता-कुजा?
आख़िर इस जन्नत पे दोज़ख़ की हुकूमत ता-कुजा?
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मगर कहते हैं तारों की हुकूमत रात भर की है
लताफ़त से हैं ख़ाली तेरे कुम्हलाए हुए बोसे
अख़्तर शीरानी
नज़्म
हो के पाबंद-ए-हुकूमत किस क़दर मजबूर हैं
या'नी कोसों हम अरब की मंज़िलों से दूर हैं