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नज़्म
ख़रोश-आमोज़ बुलबुल हो गिरह ग़ुंचे की वा कर दे
कि तू इस गुल्सिताँ के वास्ते बाद-ए-बहारी है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उस शाम मुझे मालूम हुआ इस कार-गह-ए-ज़र्दारी में
दो भोली-भाली रूहों की पहचान भी बेची जाती है
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सरापा नाला-ए-बेदाद-ए-सोज़-ए-ज़िंदगी हो जा
सपंद-आसा गिरह में बाँध रक्खी है सदा तू ने
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
मुख़्तलिफ़ हर मंज़िल-ए-हस्ती को रस्म-ओ-राह है
आख़िरत भी ज़िंदगी की एक जौलाँ-गाह है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ग़रज़ वो हुस्न अब इस रह का जुज़्व-ए-मंज़र है
नियाज़-ए-इश्क़ को इक सज्दा-गह मयस्सर है