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नज़्म
जब चलते चलते रस्ते में ये गौन तिरी रह जावेगी
इक बधिया तेरी मिट्टी पर फिर घास न चरने आवेगी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
जौन एलिया
नज़्म
वो कुछ नहीं है अब इक जुम्बिश-ए-ख़फ़ी के सिवा
ख़ुद अपनी कैफ़ियत-ए-नील-गूँ में हर लहज़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
मिरे बाज़ू पे जब वो ज़ुल्फ़-ए-शब-गूँ खोल देती थी
ज़माना निकहत-ए-ख़ुल्द-ए-बरीं में डूब जाता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
फ़ज़ा-ए-अस्पताल है कि रंग-ओ-बू की करवटें
तिरे जमाल-ए-लाला-गूँ की दास्ताँ लिए हुए
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ख़ून बन जाएगी शीशों में शराब-ए-लाला-गूँ
ख़ून की बू ले के जंगल से हवाएँ आएँगी