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नज़्म
जौन एलिया
नज़्म
गुज़िश्ता अज़्मतों के तज़्किरे भी रह न जाएँगे
किताबों ही में दफ़्न अफ़्साना-ए-जाह-ओ-हशम होंगे
अकबर इलाहाबादी
नज़्म
अभी तो ज़िंदगी के ना-चाशीदा रस हैं सैकड़ों
अभी तो हाथ में हम अहल-ए-ग़म के जस हैं सैकड़ों
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दूर ही से ऐसे इल्म-ए-जहल-पर्वर को सलाम
हुस्न-ए-निस्वाँ को बना देता हो जो जागीर-ए-आम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
चीरा-दस्ती का मिटा देती हैं सब जाह-ओ-जलाल
हैफ़-सद-हैफ़ कि हाइल है ग़रीबों का ख़याल
शकील बदायूनी
नज़्म
पेश-रौ शाही थी फिर हिज़-हाईनेस फिर अहल-ए-जाह
बअ'द इस के शैख़ साहब उन के पीछे ख़ाकसार