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नज़्म
ये जुड़ तो सकते हैं लेकिन कहाँ है वो मरहम
जो टूटे रिश्तों को क़ौमों के कर दे फिर बाहम
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
मैं शाम का पिंजरा तोड़ के बाहर आ जाता हूँ
मेरे पाँव के सब रिश्ते इक दूजे से जुड़ जाते हैं