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आगही की दुआ

वहीद अख़्तर

आगही की दुआ

वहीद अख़्तर

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    ख़ुदा ख़ुदा

    मैं हूँ मसरूफ़-ए-तस्बीह-ओ-हम्द-ओ-सना

    गो ब-ज़ाहिर इबादत की आदत नहीं है

    रिंद-मशरब हूँ ज़ोहद-ओ-रियाज़त से रग़बत नहीं है

    मगर जब भी चलता है मेरा क़लम

    जब भी खुलती है मेरी ज़बाँ

    कुछ कहूँ कुछ लिखूँ

    तेरी तख़्लीक़ का ज़मज़मा मुद्दआ मुंतहा

    हर्फ़ जुड़ कर बनें लफ़्ज़ तो करते हैं तेरी हम्द-ओ-सना

    या ख़ुदा या ख़ुदा

    मेरे अतराफ़ हैं पेट ख़ाली बदन-ए-नीम-जाँ

    कोई तकता है जब मेरा दस्त-ए-तही

    शर्म आती है मुझ को ख़ुदा-ए-ग़नी

    सोचता हूँ मैं अपनी ज़बाँ रेहन रख दूँ कहीं

    रिज़्क़ से ख़ाली पेटों को भर दूँ

    जो हैं नीम-जाँ उन में जान फूँक दूँ

    और अपने लिए थोड़ी आसाइशें मोल ले आऊँ बाज़ार से

    अपने बच्चों की ज़िद पूरी कर दूँ

    जो वाक़िफ़ नहीं हैं मईशत के अंदाज़-ओ-रफ़्तार से

    फिर यही सोचता हूँ

    ख़ुदा ख़ुदा

    क्या ज़बाँ रेहन हो कर भी तेरी इताअत करेगी

    क्या क़लम बिक के भी नाम तेरा ही लेगा

    दूसरों को ख़ुदा मान कर

    वो करने लगें मा-सिवा की भी हम्द-ओ-सना

    ख़ुदा ख़ुदा है दुआ

    आख़िरी साँस तक

    ये क़लम ये ज़बाँ

    लिखते रहते हैं ला-इलाहा

    स्रोत :
    • पुस्तक : URDU-1983 (पृष्ठ 176)
    • रचनाकार : Nand Kishore Vikram
    • प्रकाशन : Nand Kishore Vikram (1983)
    • संस्करण : 1983

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