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नज़्म
इस के इक हाथ में क़ुर्स-ए-महताब है दूसरे
हाथ में कुर्रा-ए-अर्ज़ है पाँव तलवार की धार पर हैं
अज़ीज़ क़ैसी
नज़्म
घुलता जाता है सहर के वक़्त क़ुर्स-ए-आफ़्ताब
बे-सबाती का मुअ'म्मा हो रहा है बे-नक़ाब
नख़्शब जार्चवि
नज़्म
फिर वो टूटा इक सितारा फिर वो छूटी फुल-जड़ी
जाने किस की गोद में आई ये मोती की लड़ी
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
न होंगे ख़्वाब उस का जो गवय्ये और खिलाड़ी हों
हदफ़ होंगे तुम्हारा कौन तुम किस के हदफ़ होगे
जौन एलिया
नज़्म
हुए अहरार-ए-मिल्लत जादा-पैमा किस तजम्मुल से
तमाशाई शिगाफ़-ए-दर से हैं सदियों के ज़िंदानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो
कि जैसे सच-मुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो