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नज़्म
इस गुलिस्ताँ में मगर देखने वाले ही नहीं
दाग़ जो सीने में रखते हों वो लाले ही नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
रात हँस हँस कर ये कहती है कि मय-ख़ाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लाला-रुख़ के काशाने में चल
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ज़मीर-ए-लाला में रौशन चराग़-ए-आरज़ू कर दे
चमन के ज़र्रे ज़र्रे को शहीद-ए-जुस्तुजू कर दे
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
घर-बार अटारी चौपारी क्या ख़ासा नैन-सुख और मलमल
चलवन पर्दे फ़र्श नए क्या लाल पलंग और रंग-महल
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
उठाए कुछ वरक़ लाले ने कुछ नर्गिस ने कुछ गुल ने
चमन में हर तरफ़ बिखरी हुई है दास्ताँ मेरी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो ल'अल ओ लब के तज़्किरे, वो ज़ुल्फ़ ओ रुख़ के ज़मज़मे
वो कारोबार-ए-आरज़ू वो वलवले, वो हमहमे