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नज़्म
तो मैं क्या कह रहा था यानी क्या कुछ सह रहा था मैं
अमाँ हाँ मेज़ पर या मेज़ पर से बह रहा था मैं
जौन एलिया
नज़्म
ये तौक़-ए-बंदगी वो फूल सी गर्दन मआज़-अल्लाह
वो शहद-आलूद लब और तलख़ी-ए-शेवन मआज़-अल्लाह
कैफ़ी आज़मी
नज़्म
अजम, वो मर्ज़-ए-तिलिस्म-ओ-रंग-ओ-ख़्याल-ओ-नग़मा
अरब, वो इक़लीम-ए-शीर-ओ-शहद-ओ-शराब-ओ-खुर्मा
नून मीम राशिद
नज़्म
मैं जब आरास्ता ख़ल्वत-कदों की मेज़ पर जा कर
शराबों से भी ख़ुश-रंग फूलों को अपना ही लेता हूँ
सलाम मछली शहरी
नज़्म
दूसरा कप जिस की क़िस्मत में अक्सर लिखा होता है
मेज़ के किनारे पड़े पड़े ठंडा होना