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नज़्म
तो मैं क्या कह रहा था यानी क्या कुछ सह रहा था मैं
अमाँ हाँ मेज़ पर या मेज़ पर से बह रहा था मैं
जौन एलिया
नज़्म
मैं ख़ुद मैं हसन कूज़ा-गर पा-ब-गिल ख़ाक-बर-सर बरहना
सर-ए-चाक ज़ोलीदा-मू सर-ब-ज़ानू
नून मीम राशिद
नज़्म
दस्त-ए-दौलत-आफ़रींं को मुज़्द यूँ मिलती रही
अहल-ए-सर्वत जैसे देते हैं ग़रीबों को ज़कात
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
तुम पलट आओ गुज़र जाओ या मुड़ कर देखो
गरचे वाक़िफ़ हैं निगाहें कि ये सब धोका है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
वो जब हंगाम-ए-रुख़्सत देखती थी मुझ को मुड़ मुड़ कर
तो ख़ुद फ़ितरत के दिल में महशर-ए-जज़्बात होता था
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
सुलैमाँ सर-ब-ज़ानू तुर्श-रू ग़म-गीं, परेशाँ-मू
जहाँ-गिरी, जहाँ-बानी फ़क़त तर्रार-ए-आहू
नून मीम राशिद
नज़्म
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
और आख़िर बोद जिस्मों में सर-ए-मू भी न था
जब दिलों के दरमियाँ हाइल थे संगीं फ़ासले