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नज़्म
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम