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नज़्म
ये उल्टा दर्स-ए-अदब ये सड़ी हुई तालीम
दिमाग़ की हो ग़िज़ा या ग़िज़ा-ए-जिस्मानी
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
जलते देखा है कभी हस्ती के दिल का तू ने दाग़
आँच से जिस की ग़िज़ा पाता है शायर का दिमाग़
जोश मलीहाबादी
नज़्म
न ग़िज़ा में न दवा में है तो फिर कौन है तू
तू हलाकू है कि तैमूर कि फ़िरऔन है तू
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
सेहत की सुंदरता पाएँ सब को रंग-ओ-रूप मिले
ताज़ा हवा भरपूर ग़िज़ा हो इन को सुनहरी धूप मिले
सय्यदा फ़रहत
नज़्म
अब ये हालत है ग़िज़ा अच्छी है कपड़े भी नफ़ीस
और अंग्रेज़ी ज़बाँ भी बोल लेता हूँ सलीस
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
बह के मशकीज़ा-ए-अब्र से कितनी बूँदें ज़मीं की ग़िज़ा बन गईं
ग़ैर-मुमकिन था उन का शुमार
शकेब जलाली
नज़्म
शायरी को हम समझते हैं जो रूहानी ग़िज़ा
बाज़ लोगों के लिए हो जाती है अक्सर अज़ाब