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नज़्म
ये वो ख़ित्ता था जिस में नौ-बहारों की ख़ुदाई थी
वो इस ख़ित्ते में मिस्ल-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
मैं हैराँ हूँ कि इस ख़ित्ते को क्यूँ कर सर-ज़मीं कहिए
सदाक़त का तक़ाज़ा है कि फ़िरदौस-ए-बरीं कहिए
मयकश अकबराबादी
नज़्म
सईदुद्दीन
नज़्म
बिजलियाँ जिस में हों आसूदा वो ख़िर्मन तुम हो
बेच खाते हैं जो अस्लाफ़ के मदफ़न तुम हो
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
तमांचे मौज के खाते थे जो बन कर गुहर निकले
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
वो ख़ामा-सोज़ी शब-बेदारियों का जो नतीजा हो
उसे इक खोटे सिक्के की तरह सब को दिखाना है