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नज़्म
एक रंगीन ओ हसीं ख़्वाब थी दुनिया मेरी
जन्नत-ए-शौक़ थी बेगाना-ए-आफ़ात-ए-सुमूम
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तहज़ीब हाफ़ी
नज़्म
पहले थीं वो शोख़ियाँ जो आफ़त-ए-जाँ हो गईं
''लेकिन अब नक़्श-ओ-निगार-ए-ताक़-ए-निस्याँ हो गईं''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
ग़म-ए-हिज्राँ है क्या और सोज़-ए-उल्फ़त किस को कहते हैं
जुनूँ होता है कैसा और वहशत किस को कहते हैं