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नज़्म
ख़ुफ़्ता-ख़ाक-ए-पय सिपर में है शरार अपना तो क्या
आरज़ी महमिल है ये मुश्त-ए-ग़ुबार अपना तो क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
हर इक क़दम उसी मंज़िल की आरज़ू रखना
कोई भी फ़र्ज़ हो ख़्वाहिश से फिर भी बरतर है
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
हयात-ए-आरज़ी सदक़े हयात-ए-जावेदानी पर
फ़ना होना ही अब इक ज़ीस्त की सूरत समझते हैं