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नज़्म
अभी कल तक जब उस के अब्रूओं तक मू-ए-पेचाँ थे
अभी कल तक जब उस के होंट महरूम-ए-ज़नख़दाँ थे
मजीद अमजद
नज़्म
लरज़ रहा है दम-ब-दम कमान आबरुओं का ख़म
कोई जब एक नाज़-ए-बे-नियाज़ से किताबचों पे खींचता चला गया
मजीद अमजद
नज़्म
हुस्न अंगड़ाई में जिस की सैकड़ों क़ौमों का राज़
हुस्न जिस के अब्रूओं का जल्वा मेहराब-ए-नमाज़
यूसुफ़ ज़फ़र
नज़्म
नशीली आँखें, रसीली चितवन, दराज़ पलकें, महीन अबरू
तमाम शोख़ी, तमाम बिजली, तमाम मस्ती, तमाम जादू