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नज़्म
क़ौम मज़हब से है मज़हब जो नहीं तुम भी नहीं
जज़्ब-ए-बाहम जो नहीं महफ़िल-ए-अंजुम भी नहीं
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अगर उस्मानियों पर कोह-ए-ग़म टूटा तो क्या ग़म है
कि ख़ून-ए-सद-हज़ार-अंजुम से होती है सहर पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
अंजुम-ए-कम-ज़ौ गिरफ़्तार-ए-तिलिस्म-ए-माहताब
देखता क्या हूँ कि वो पैक-ए-जहाँ-पैमा ख़िज़्र
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
में क़सम खाता हूँ अपने नुत्क़ के ए'जाज़ की
तुम को बज़्म-ए-माह-ओ-अंजुम में बिठा सकता हूँ मैं
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
अपनी रिफ़अत पे जो नाज़ाँ हैं तो नाज़ाँ ही रहें
कह दो अंजुम से कि देखें न इधर आज की रात
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जब उस के होंट आ जाते थे अज़ ख़ुद मेरे होंटों तक
झपक जाती थीं आँखें आसमाँ पर माह ओ अंजुम की
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
फ़लक को क्या ख़बर ये ख़ाक-दाँ किस का नशेमन है
ग़रज़ अंजुम से है किस के शबिस्ताँ की निगहबानी
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
जवानी की अँधेरी रात है ज़ुल्मत का तूफ़ाँ है
मिरी राहों से नूर-ए-माह-ओ-अंजुम तक गुरेज़ाँ है