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नज़्म
कनार-ए-शाम नुक़रई लिबास में जमालती हुई शरीर अप्सरा नहीं रही
वो रीश में गुँधे हुए
इलियास बाबर आवान
नज़्म
कल थी कमरे में बंद एक वहशत से भरपूर सर पीटती शोर करती परेशान-कुन अप्सरा
कल न-जाने हो क्या
माहरुख़ अली माही
नज़्म
त'अल्लुक़ बोझ बन जाए तो उस को तोड़ना अच्छा
वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन
साहिर लुधियानवी
नज़्म
जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने
दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
इस बस्ती के इक कूचे में इक 'इंशा' नाम का दीवाना
इक नार पे जान को हार गया मशहूर है उस का अफ़साना
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
या छोड़ें या तकमील करें ये इश्क़ है या अफ़साना है
ये कैसा गोरख-धंदा है ये कैसा ताना-बाना है