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नज़्म
मजीद अमजद
नज़्म
आशिक़ाँ कहते हैं माशूक़ों से बा-इज्ज़-ओ-नियाज़
है अगर मंज़ूर कुछ लेना तो हाज़िर हैं रूपे
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ज़िक्र करता हूँ पुरानी सोहबतों का बार बार
और दौर-ए-हाल को माज़ी से ठुकराता हूँ मैं
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
अहल-ए-बातिल देख कर हैरत से मुँह तकते रहे
राह-ए-हक़ पर बे-ख़तर बा-इज़्ज-ओ-शाँ बढ़ता गया
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
मेहर-ए-अख़्लाक़ से उतरा तू उजाला बन कर
अर्ज़-ए-पंजाब की क़िस्मत का सितारा बन कर
मोअज़्ज़म अली खां
नज़्म
तुझ को कितनों का लहू चाहिए ऐ अर्ज़-ए-वतन
जो तिरे आरिज़-ए-बे-रंग को गुलनार करें