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नज़्म
इक रिंद-ए-पारसा था इक मर्द-ए-बा-ख़ुदा था
महफ़िल में दोस्ती की इक यार-ए-बा-वफ़ा था
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
ज़िंदगी की डोलती कश्ती के कितने नाख़ुदा
कितने मरदान-ए-हक़ीक़ीत कोश कितने बा-ख़ुदा