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नज़्म
मैं वो शजर था
कि मेरे साए में बैठने और शाख़ों पे झूलने की हज़ारों जिस्मों को आरज़ू थी
उबैदुल्लाह अलीम
नज़्म
बिलाल असवद
नज़्म
और बस में चारों जानिब बैठे लोगों की ये भूकी नज़रें
उस के कपड़े फाड़ के जिस्म के अंदर तक
आतिफ़ तौक़ीर
नज़्म
ये अक्सर बैठने वालों के धक्कों से खिसकती है
कभी कश्ती में दरिया है कभी दरिया में कश्ती है
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
हुजूम-ए-दोस्ताँ ने धज्जियाँ इस की उड़ा ली हैं
वो हर इक बैठने वाले से कपड़े की सवाली हैं
असद जाफ़री
नज़्म
उस में दो लोगों का बिस्तर और
उस के ऐन सामने दो लोगों के बैठने वाला मटियाले से रंग का सोफा पड़ा है