मैं शहर के नवाही शोर में रहता हूँ
रोज़ाना मनों के हिसाब से
ख़ामोशी का सीवरेज
मेरे घर के सामने पड़ाव डालता है
जिस में अन-कही बातों के छिलके
नौज़ाईदा तकलीफों के रैपर्ज़
और चीख़ती शामों की ख़ाली बोतलें
बदबू-दार गालियों को जन्म देती हैं
मैं अपनी आवाज़ का निकास चाहता हूँ
लफ़्ज़ अगर बरसात से पहले
क़रीबी समाअतों तक न पहुँचें
तो ज़बानों को दीमक लग जाती है
मैं ने ख़ुदा से गुज़ारिश की है
बादलों की आमद से क़ब्ल
मुझे सूरज से मिलने दिया जाए
ता कि हरारत जौहड़ों को ख़ुश्क करने में मुआविन हो
मगर म्युनिसिपल कमेटी के दफ़्तर में
बैठने वाले फ़रिश्ते
छुट्टियों पर हैं
शहर मुझ से दो हाथ की दूरी पर है
लेकिन मेरे पास लाउडस्पीकर नहीं
सो मैं उस चीख़म धाड़ के मंज़र-नामे पर
अपनी जगह नहीं बना सकता
अगर ये मसअला कुछ अर्से तक यूँही रहा
तो मजबूरन मुझे कश्ती दरयाफ़्त करना होगी
जिसे दरिया ने धुत्कार दिया हो
मगर मैं नाख़ुदा नहीं हूँ
ज़िंदगी मुझ से किस क़दर मज़ाक़ करती है
भला दो हाथ की दूरी कितनी देर में तय होती है
मेहरबान साअ'तों का इंतिज़ार मुझे
क़ुबूलियत से दूर क्यों रखता है
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