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नज़्म
ये क्या मुमकिन नहीं तू आ के ख़ुद अब इस का दरमाँ कर
फ़ज़ा-ए-दहर में कुछ बरहमी महसूस होती है
कँवल एम ए
नज़्म
रुख़-ए-हयात पे काकुल की बरहमी ही नहीं
निगार-ए-दहर में अंदाज़-ए-मरयामी ही नहीं
मख़दूम मुहिउद्दीन
नज़्म
ब-पास-ए-अहल-ए-मज्लिस नाज़-बरदारी भी सीखी है
अदाकारी में यकता हूँ गुलू-कारी भी सीखी है
असद जाफ़री
नज़्म
कमाल अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
यहाँ ये सब लोग अपनी अपनी गवाहियाँ ले के यूँ खड़े हैं
किसी के होंटों पे बरहमी है
गुलाम जीलानी असग़र
नज़्म
हमारा बाहमी रिश्ता जो हासिल-तर था रिश्तों का
हमारा तौर-ए-बे-ज़ारी भी कितना वालिहाना है
जौन एलिया
नज़्म
हिना-बंद-ए-उरूस-ए-लाला है ख़ून-ए-जिगर तेरा
तिरी निस्बत बराहीमी है मेमार-ए-जहाँ तू है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
बद-हाल घरों की बद-हाली बढ़ते बढ़ते जंजाल बनी
महँगाई बढ़ कर काल बनी सारी बस्ती कंगाल बनी