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नज़्म
धरती की सुलगती छाती से बेचैन शरारे पूछते हैं
तुम लोग जिन्हें अपना न सके वो ख़ून के धारे पूछते हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अजनबी क़ौम के ज़ुल्मत-अफ़्शाँ फरेरे की मनहूस छाँव से आज़ाद हैं
खेत सोना उगलने को बेचैन हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
सीने में घटाओं की बिजली, बेचैन है कौंदी जाती है
मंज़र की कुदूरत धो देगी धरती की प्यास बुझाएगी