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नज़्म
अपने बेगाने ग़रज़ करते हैं सब प्यार उसे
जो ख़ुशामद करे ख़ल्क़ उस से सदा राज़ी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
इस में ही दुश्मन इस में ही अपने बेगाने हैं
शा-झोंपड़ा भी अपने इसी में नमाने हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मुद्दतों अपनी ज़बाँ पर तेरे अफ़्साने रहे
तू रही बेगाना लेकिन हम न बेगाने रहे
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जहाँ रूहों का सौदा रात-दिन होता ही रहता है
जहाँ अपनों से लगते हैं न जाने कितने बेगाने