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नज़्म
वस्ल का लुत्फ़ शब-ए-हिज्र के मारे यूँ लें
नींद आ जाए जो दोनों को तो ख़्वाबों में मिलें
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
नोट गिनती हुई उँगलियाँ यूँ थिरकती हैं
जैसे तमन्नाओं को थपकियाँ दे शब-ए-हिज्र में एक ब्रिहन का दिल
ताबिश कमाल
नज़्म
फिर भी एहसास-ए-मसर्रत का न हो ज़ेहन को होश
गिन तो सकता हूँ, शब-ए-हिज्र में तारों को मगर
हसन नईम
नज़्म
दराज़ से दराज़-तर हैं हल्क़ा-हा-ए-रोज़-ओ-शब
ये किस मक़ाम पर हूँ मैं कि बंदिशों की हद नहीं