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नज़्म
मैं ख़ुद में झेंकता हूँ और सीने में भड़कता हूँ
मिरे अंदर जो है इक शख़्स मैं उस में फड़कता हूँ
जौन एलिया
नज़्म
तेरे बस में थी अगर मशअ'ल-ए-जज़्बात की लौ
तेरे रुख़्सार में गुलज़ार न भड़का होता
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
रेंगती मुड़ती मचलती तिलमिलाती हाँफती
अपने दिल की आतिश पिन्हाँ को भड़काती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
निगाह-ए-मस्त से दिल को मिरे तड़पा रही है तू
अदा-ए-शौक़ से जज़्बात को भड़का रही है तू