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नज़्म
दिल में इक शोला भड़क उट्ठा है आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उट्ठा है आख़िर क्या करूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
गुनाह के तुंद-ओ-तेज़ शोलों से रूह मेरी भड़क रही थी
हवस की सुनसान वादियों में मिरी जवानी भटक रही थी
नून मीम राशिद
नज़्म
ये देखते ही हुजूम बिफरा भड़क उठे यूँ ग़ज़ब
कि शोले के जैसे नंगे बदन पे जाबिर के ताज़ियाने
नून मीम राशिद
नज़्म
मेरे सपने मेरे आँसू इन की छलनी-छाँव में जैसे
धूल में बैठे खेल रहे हों बालक बाप से रूठे रूठे!
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
क्या बताऊँ मैं भड़क उठते थे क्यूँकर दिल के दाग़
जब चमन करता था रौशन ताज़ा कलियों के चराग़
मिर्ज़ा मोहम्मद हादी अज़ीज़ लखनवी
नज़्म
तुम्हें है ख़ौफ़ कि ज्वाला भड़क उठे न कहीं
मैं सोचता हूँ जला दूँ किसी तरह ख़ुद को
चन्द्रभान ख़याल
नज़्म
मैं इस ख़याल में था बुझ चुकी है आतिश-ए-दर्द
भड़क रही थी मिरे दिल में जो ज़माने से