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नज़्म
क्या बधिया भैंसा बैल शुतुर क्या गौनें पल्ला सर-भारा
क्या गेहूँ चाँवल मोठ मटर क्या आग धुआँ और अँगारा
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
आज शायद मंज़िल-ए-क़ुव्वत में तुम रहते नहीं
जिस की लाठी उस की भैंस अब किस लिए कहते नहीं
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मुझे इस ज़मीन पर चलते हुए अट्ठाईस बरस हो गए
बाप, माँ, बहनों, भाइयों और महबूबाओं के दरमियान