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ईद

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    चाँद जब ईद का नज़र आया

    हाल क्या पूछते हो ख़ुशियों का

    आसमाँ पर हवाइयाँ छूटीं

    नौबतें मस्जिदों में बजने लगीं

    शुक्र सब ख़ास-ओ-आम करने लगे

    और बाहम सलाम करने लगे

    नन्हे बच्चे हैं ख़ास कर मसरूर

    कहते हैं ईद अब है कितनी दूर

    माएँ कहती हैं कुछ नहीं अब दूर

    सुब्ह जाएगी यहाँ पे ज़रूर

    आओ खा पी के सो रहो चुप चाप

    आएगी ईद सुब्ह आपी-आप

    बच्चों की आँख में है नींद कहाँ

    हैं उन्हें तो चढ़ी हुई ख़ुशियाँ

    हो गई रात काटनी मुश्किल

    कल के दिन पर लगा हुआ है दिल

    बच्चियों ने लगाई है मेहंदी

    रंगयाली मँगाई है मेहंदी

    अच्छे अच्छे बनाए हैं कपड़े

    सब नए सिल के आए हैं कपड़े

    बच्चे बे-ए'तिबार ऐसे हैं

    उन को रख कर सिरहाने सोए हैं

    गई नींद सो गए बच्चे

    बारे ख़ामोश हो गए बच्चे

    ख़्वाब भी ईद ही के आते हैं

    सोते से उठ के बैठ जाते हैं

    सुब्ह-ए-सादिक़ का हो गया है ज़ुहूर

    सारी दुनिया पे छा गया इक नूर

    चिड़ियाँ पेड़ों पे चहचहाने लगीं

    ईद के गीत मिल के गाने लगीं

    शर्क़ पर जल्वा-गर हुआ सूरज

    आज है कुछ नया नया सूरज

    ताज ख़ूब उस ने आज पहना है

    सुर्ख़ किरनों का ताज पहना है

    हर मुसलमान बाग़-बाग़ है आज

    आसमाँ पर हर इक दिमाग़ है आज

    सुब्ह उठते ही सब ने ग़ुस्ल किया

    पहना उजला लिबास इत्र मला

    माएँ नहला रही हैं बच्चों को

    ख़ूब बहला रही हैं बच्चों को

    बच्चे ख़ुश हों यही है सारी ईद

    उन के बच्चों की ईद उन की ईद

    बच्चियों ने भी सर गुंधाया है

    माओं ने ख़ूब उन्हें सजाया है

    जोड़े रंगीन सब ने पहने हैं

    चाँदी सोने के सारे गहने हैं

    ओढ़नी पर टिका हुआ गोटा

    देखना है दमक रहा कैसा

    भाइयों को बुलाती फिरती हैं

    अपने कपड़े दिखाती फिरती हैं

    हाथ मेहंदी रंगे दिखाती हैं

    ख़ुश हैं हँसती हैं खिलखिलाती हैं

    और लड़के भी हो गए तय्यार

    सर पे बाँधी है लट-पटी दस्तार

    ख़ुशनुमा सब ने सूट पहने हैं

    और पैरों में बूट पहने हैं

    किया झुक कर सलाम माओं को

    बाप दादों को और चचाओं को

    सब से पैसे झगड़ झगड़ के लिए

    रूठ कर ज़िद से और अड़ के लिए

    हाथ में लकड़ी जेब में रूमाल

    चलते फिरते हैं क्या ठुमकती चाल

    हो चुकी अब तो ख़ूब तय्यारी

    और सेवइयों की गई बारी

    फ़र्श पर बिछ गया है दस्तरख़्वान

    मिल के बैठे हैं बच्चे बूढे जवान

    सामने है भरी हुई थाली

    हैं सिवय्याँ भी ख़ूब रूमाली

    ख़ूब खाते हैं और खिलाते हैं

    यूँ ख़ुशी ईद की मनाते हैं

    लोग सब ईद पढ़ के निकले हैं

    गोया परवान चढ़ के निकले हैं

    ख़ुश हैं सब और करते हैं ख़ैरात

    लूटते हैं सवाब हाथों हात

    जान पहचान मिलते हैं अक्सर

    ईद मिलते हैं सब गले मिल कर

    बच्चे-बाले भी साथ हैं सारे

    जो कि हैं ईद देखने आए

    उन को मेला दिखाते फिरते हैं

    चीज़याँ भी खिलाते फिरते हैं

    बच्चे लट्टू हुए खिलौनों पर

    वो भी झोली में रख लिए ले कर

    क्यों हो खेल का यही सिन है

    और फिर आज ईद का दिन है

    स्रोत:

    Bahar Ke Phool (Pg. 38)

    • लेखक: हफ़ीज़ जालंधरी
      • प्रकाशक: दारुल इशाअत पंजाब, लाहौर
      • प्रकाशन वर्ष: 1940

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