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नज़्म
जहाँबानी से है दुश्वार-तर कार-ए-जहाँ-बीनी
जिगर ख़ूँ हो तो चश्म-ए-दिल में होती है नज़र पैदा
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
जो है पर्दों में पिन्हाँ चश्म-ए-बीना देख लेती है
ज़माने की तबीअत का तक़ाज़ा देख लेती है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
''ख़लल-पज़ीर बुअद हर बिना कि मय-बीनी
ब-जुज़ बिना-ए-मोहब्बत कि ख़ाली अज़-ख़लल-अस्त''
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक पस्ता-क़द थी जिस को पदमनी कहता था मैं
बिन्त-ए-अफ़्रीक़ा को हीरे की कनी कहता था मैं
खालिद इरफ़ान
नज़्म
नशात-ए-रूह-अफ़ज़ा की फ़ज़ाओं में वो रंगीनी
वो फ़व्वारों की नग़्मा-साज़ियों में कैफ़-ए-ख़ुद-बीनी
मयकश अकबराबादी
नज़्म
साजिदा ज़ैदी
नज़्म
और उस के साथ एक दर्द-ए-नदामत ही वजह-ए-मुआफ़ी है
इस तरह पेश-बीनी रिवायात और मस्लहत के मुनाफ़ी है
जमीलुद्दीन आली
नज़्म
अब भी बाक़ी जिस ज़मीं पर है गुज़िश्ता अज़्मतें
वो ज़मीं बा-चश्म-ए-बीनी देखने आया हूँ मैं