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नज़्म
इसी बहते हुए दरिया में अपने ख़्वाब का सोना बिखरना है
हमारे जिस्म का सौदा इसी मिट्टी से होना है
फ़ैसल रेहान
नज़्म
मौसम-ए-दर्द का आँगन में उतरना क्या है
शाख़ से टूट के पत्तों का बिखरना क्या है
ज़हीर मुश्ताक़ राना
नज़्म
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़