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नज़्म
जो मुँह बना के किसी दिन न मुझ से रूठ सकी
जो ये भी कह न सकी जा न बोलूँगी तुझ से
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
आख़िरी तकरार के बाद मैं ने ज़बान समेट ली है
अब मैं एक लफ़्ज़ भी मज़ीद नहीं बोलूँगा
अम्मार इक़बाल
नज़्म
सर-निगूँ हो कर वो सब बोलीं ज़बान-ए-हाल से
हो सका हम से न कुछ अल-इन्फ़िआल अल-इन्फ़िआल