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नज़्म
झड़ी बरसात की जब आग तन मन में लगाती हो
गुलों को बुलबुल-ए-नाशाद हाल-ए-दिल सुनाती हो
राजेन्द्र नाथ रहबर
नज़्म
बुलबुल-ए-मस्त-नवा दश्त में क्यूँ रहने लगी
नग़्म-ए-तर की जगह मर्सिया क्यूँ कहने लगी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
और उस के बालों का रेशम पानी में मिल जाएगा
लहर की इक दीवार गिरी और बुलबुले दब कर टूट गए
साक़ी फ़ारुक़ी
नज़्म
ज़बाँ का लुत्फ़ था ऐ बुलबुल-ए-हिन्दुस्ताँ तुझ से
पयम्बर था सुख़न का तो तिरे नग़्मों पे झूमेंगे
मयकश अकबराबादी
नज़्म
हैं दोनों बुलबुल-ए-शैदा है दोनों का गुलिस्ताँ ये
न तुम भी छोड़ सकते हो न वो भी याँ से जा सकते