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नज़्म
मिल रहा हो जिस तरह जोश-ए-बग़ावत को फ़राग़
जंग छिड़ जाने पे जैसे एक लीडर का दिमाग़
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
इंतिहा की चिड़ है मुझ को दो दिलों के क़ुर्ब से
देखता हूँ जब ये फ़ौरन जाल फैलाता हूँ मैं
प्रेम लाल शिफ़ा देहलवी
नज़्म
ये मैं कि मुझ से छिन गया है सर-बसर
वो कौन है कि जिस की दस्तरस में आ के मैं मिरा नहीं रहा
ख़ालिद मुबश्शिर
नज़्म
बादल घिरे हुए हैं रक़्साँ हैं बिजलियाँ भी
छिड़ जाएँ साज़-ए-इशरत हों दौर मय-कशी के
अमीर औरंगाबादी
नज़्म
छिड़ गई है जो कभी पैरहन-ए-चुस्त की बात
फिर गई है मिरी आँखों में शगूफ़े की ज़ात