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नज़्म
मजीद अमजद
नज़्म
बाग़-ए-हिन्दोस्तान जिन जिन के ख़ून से सींचा गया
दार ना-क़दरी पे बिल-आख़िर उन्हें खींचा गया
ग़ौस ख़ाह मख़ाह हैदराबादी
नज़्म
जगह जगह से फैल गए हैं
और काग़ज़ इतना ख़स्ता है कि अगर ख़त ज़ियादा देर डाक में रहता तो शायद
ज़ीशान साहिल
नज़्म
उसी पे आता है एक मोटर भी डाक-ख़ाने की डाक लेने
उसी पे जाते हैं कुछ देहाती लदी हुई गाड़ियाँ हकाए
नुशूर वाहिदी
नज़्म
मेरे हाथों में लक़-ओ-दक़ सहराओं की रेतीली वहशत
चबाए हुए अक्स की लकीरें बनाती रहती है
सिदरा सहर इमरान
नज़्म
जैसे सराबों का पीछा करते करते लक़-ओ-दक़ सहरा में
अचानक नख़लिस्तान मिल जाता है
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
डाक-ख़ाना अपना रेल अपनी नहीं अब कोई डर
अब तो मैं बैरंग ख़त भेजूँगा बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर